गझल

माझी मराठी गझल गायकी

मराठी गझल गायकीला तशी कोणतीही परंपरा नाही.माझ्या अगोदर मराठी गझल,गझलसारखी गाण्याचा फ़ारसा प्रयत्न कोणीच केला नसल्यामुळे मराठी गझल गाणे हे माझ्यासाठी आव्हान होते.मराठीमध्ये गझल जशी उर्दूकडून आली तशीच मराठी गझल गायकीही उर्दू गझल गायकांकडून उचलावी लागली.माझी गायकी किंवा ढंग हा पाकिस्तानचे मेहदी हसन,फ़रिदा खानम,गुलाम अली व आपले जगजीत सिंग ह्यांच्या गायकीवरुन तयार झाला आहे.त्या काळात विदर्भातील यवतमाळ जिल्ह्यातील आर्णी सारख्या आडवळणी गावात वरील गायकांच्या ध्वनिमुद्रिका सुध्दा मिळत नव्हत्या.पाकिस्तान रेडिओवरुन जे काही ऐकायला मिळायचे त्यावरुन मला जेवढे शिकता येईल तेवढे शिकत गेलो.पुढे स्व.सुरेश भटांनी मला मेहदी हसन,फ़रीदा खानम, यांच्या ध्वनिफ़िती दिल्या.हळूहळू गुलाम अली,जगजीत सिंग,बेगम अख्तर यांच्याही गायकीचा अभ्यास करुन मी माझा वेगळा असा बाज निर्माण केला. (पृष्ठ क्रमांक क्लिक केल्यास एक- एक पृष्ठ आपल्याला वाचता येईल)

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Tuesday, August 19, 2025

गझलेचे उपयोजित छंदःशास्त्र...डॉ.श्रीकृष्ण राऊत



मित्रहो,

गझलेच्या आकृतिबंधाची सांगोपांग चर्चा करणारे पुस्तक सुरेश भटांना लिहायचे होते.या संदर्भात आमची अनेकदा चर्चा झाली होती.'#गझलनामा ' असे त्या पुस्तकाचे शीर्षकही त्यांनी निश्चित केले होते. पण पुस्तक लिहिण्याएवढी सवड आयुष्याने त्यांना दिली नाही. तो ड्रिमप्रोजेक्ट पूर्ण करण्याचे काम नियतीने मित्रवर्य श्रीकृष्ण राऊत याचेकडून करवून घेतले. पुसदच्या संमेलनात दि.१७ ऑगस्ट २५ ला नुकताच प्रकाशित झालेला 'गझलेचे उपयोजित छंदःशास्त्र ' हाच श्रीकृष्ण राऊत याचा तो ग्रंथ होय.

      श्रीकृष्णाचा गझललेखनाचा अनुभव प्रदीर्घ आहे. तेवढाच त्यांचा छंदःशास्त्राचा व्यासंगही दांडगा आहे.या ग्रंथात त्यांने संस्कृत छंद:शास्त्र आणि फारसी छंदःशास्त्राची केलेली तौलनिक चिकित्सा हे त्यांचे मौलिक योगदान आहे.गझललेखनातील अनेक बारकावे जसे की, वृत्त निवडताना घ्यावयाची दक्षता, वृत्तामधील यतिस्थान, वृत्तातील लवचिकता, वृत्तात उपयोजिलेल्या शब्दांच्या उच्चाराची ओढाताण ह्याबद्दल त्यांनी सोदाहरण केलेल्या सूचना अत्यंत उपयुक्त आहेत. काफियांचे प्रकार, काफियांची पुनरावृत्ती,काफियांचे दोष या विषयी त्यांनी केलेले वस्तुनिष्ठ विश्लेषण मराठी गझलेला समृद्ध करणारे आहे. सुबोध भाषा हे या ग्रंथाचे वैशिष्ट्य आहे. गझल ह्या सशक्त काव्यप्रकाराबाबत नवोदित आणि ज्येष्ठांच्या मनात अनेक शंका येतात, उदा. मात्रावृत्ते, स्वरकाफिया, दीवान इ. अशा शंकांचे निरसन करणारा हा ग्रंथ, गझलप्रेमी, गझलकार, गझल अभ्यासक या सर्वांसाठीच अत्यंत मौलिक ठरणार आहे. तसेच ज्यांना गझल लिहिण्याचं वेड असते आणि ज्यांचे खयालही दर्जेदार असतात परंतु कुठेतरी ज्यांच्यापुढे गझल-व्याकरणाच्या मापदंडावर गझल खरी उतरली आहे की नाही असा संभ्रम जेव्हा उपस्थित होतो,त्या सर्व गझल लिहिणाऱ्यांसाठी सुस्पष्ट दिशा दाखविणारा आहे.

     मराठीमध्ये छंद:शास्त्राच्या उपयोजनाच्या अंगाने सांगोपांग व सुस्पष्ट असे लेखन आजवर क्वचितच झाले आहे. विसाव्या शतकाच्या पूर्वार्धात (सन १९२७) डॉ. माधवराव पटवर्धन (कविवर्य माधव जुलियन) यांनी प्रथमच “#छंदोरचना” हा ग्रंथ लिहून मराठीला छंद:शास्त्राची भक्कम परंपरा दिली.त्यामुळे गझल या प्रकाराचा परिचय मराठीत करून देण्याचे श्रेय डॉ. माधवराव पटवर्धन यांना जाते. नंतर कविवर्य सुरेश भट यांनी या प्रकाराला नवे व्याकरण, नवी अभिव्यक्ती आणि लोकमान्यता दिली. मात्र, त्यांनी अपेक्षित स्वरूपातील उपयोजित छंदशास्त्र प्रत्यक्षात उभे करू शकले नाहीत.त्याची कमी श्रीकृष्णाच्या या  ग्रंथाचे भरून काढली आहे.

     या ग्रंथात कुठेही अवघड किंवा किचकट शास्त्रीय मांडणी नाही. सोप्या, सरळ आणि सुस्पष्ट भाषेत गझलेच्या अंतरंगाबरोबरच बहिरंगाचे विवेचन करण्यात आले आहे. त्यामुळे या ग्रंथाचे मूल्य अधिकच वाढते. पूर्वसूरींचा मान ठेवूनही श्रीकृष्ण राऊत याचा हा ग्रंथ समकालीन गझलकारांसाठी निश्चितच मार्गदर्शक ठरेल याची मला खात्री आहे.


-गझलगंधर्व सुधाकर कदम

सी१सी/१३,गिरीधर नगर

मुंबई बंगलोर महामार्ग

वारजे माळवाडी

पुणे ४११ ०५८

मोबाईल ८८८८८५८८५०

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□ गझलेचे उपयोजित छंदःशास्त्र 

( मराठी गझलेचे व्याकरण )

□ लेखक : श्रीकृष्ण राऊत

□ स्वयं प्रकाशन, सासवड, पुणे 9890811567

□ मुखपृष्ठ : सतीश पिंपळे, अकोला 9850199323

□ प्रस्तावना : डॉ.अविनाश  सांगोलेकर

□ पाठराखण - सुरेशकुमार वैराळकर,

□ पृष्ठे : २७६

□ किंमत : ४००/-

□ पोस्टेज : ६५/-

□ गुगल पे / फोन पे :9284253805

□ व्हॉटसअप नं. 8668685288

Friday, August 15, 2025

श्रीकृष्ण राऊत यांना हार्दिक शुभेच्छा!

दि.१७ ऑगष्टला पुसद येथे संपन्न होत असलेल्या गझल मंथन साहित्य संस्थेच्या एक दिवसीय विदर्भ स्तरीय गझलसंमेलनाचे अध्यक्षपद माझा जिवलग मित्र डॉ.श्रीकृष्ण राऊत भूषवत आहे.त्याबद्दल त्याचे मनःपूर्वक अभिनंदन! तसेच याच संमेलनात श्रीकृष्णाने गेली २५ वर्षे अत्यन्त परिश्रम घेऊन लिहिलेल्या #गझलेचे_उपयोजित_छंदशास्त्र (मराठी गझलेचे व्याकरण) ह्या अत्यन्त महत्वाच्या ग्रंथाचे प्रकाशन होत आहे.त्याबद्दल त्याला आणि गझल सम्मेलनाला माझ्या हार्दिक शुभेच्छा! 
                                🌹💞🌹


 

तुझ्यासाठीच मी...राग यमनपर आधारित मराठी गझल

●अखिल भारतीय गांधर्व महाविद्यालय मंडल प्रकाशन,
'#संगीत_कला_विहार', अगस्त २०२५.#राग  #यमन

     यमन राग के नाम के बारे में कई सारी भिन्न भिन्न राय हैं। कुछ लोग इसे फारसी भाषा के 'इमन' का यमन में हुआ बदलाव मानते हैं। उसी तरह यह राग अमीर खुसरो नाम के अल्लाउद्दीन खिलजी के समय के विद्वान संगीतकार ने प्रचलित किया है ऐसा भी माना जाता है। यह बात निश्चित है कि खुसरो के समय में नये नये राग प्रचार में आ गये। इन में फारसी, इरानी सुरावटें और भारतीय रागों का मिलाप हो गया था। गोपाल नायक यह संगीत का एक बड़ा विद्वान खुसरो का समकालीन था। दक्षिण के पंडित यमन राग यह 'यमुना कल्याण' राग का एक प्रकार समझते है। इस नाम का उल्लेख दक्षिण के ग्रंथों में भी है लेकिन यमुना कल्याण और यमन इन दो रागों में नाम के सिवा और कोई भी समानता नहीं है। भातखंडे जी ने लिखे हुए उत्तर भारतीय संगीत शास्त्र इस ग्रंथ में यह राग कल्याण ठाटसे उत्पन्न हुआ है ऐसा लिखा है, लेकिन भातखंडे जी का पुरा आदर करके में यह कहना चाहता हूं कि इसका भी कुछ आधार नहीं है। (मेरी बात कई लोगों को पसंद नहीं आयेगी) लेकिन पुराने ग्रंथों में भी यमन नाम के राग का कहीं भी जिक्र किया हुआ नहीं दिखाई देता है। और किसी एक शब्द से इस राग का नाम आया है ऐसा भी लगता नहीं क्यूँ कि राग निर्मिती यह एक प्रक्रिया आहे. जो अचानक से होनेवाली नहीं है।

     कुछ लोग इसे यमन कल्याण भी बोलते हैं लेकिन इस में भी कुछ खास अर्थ नहीं है। यमन राग में विवादी सुरों की तरह कभी कभी कोमल मध्यम लगाने से वह यमन कल्याण हो जाता है। इसे भी किसी ग्रंथ का आधार नहीं है। इस प्रकार एक स्वर बदल कर या एक सूर जादा लगाकर या फिर विवादी के स्तर पर किसी अलग सूर का प्रयोग करके वह प्रचलित करना ऐसे कई उदाहरण हमें दिखाई देते हैं लेकिन वो सब छोड़ दिजीये। इसके बावजूद भी यमन राग बहुत लोकप्रिय है इसमें कोई संदेह नहीं। मैं तो इसे 'पैदाइशी अमीर' राग कहता हूं। इस पर अगर लिखा जाये तो सुरज, सागर, अवकाश या धूमकेतू पर लिखने जैसा है। इतना बड़ा विस्तार रखनेवाला दूसरा कोई राग मैंने कभी देखा नहीं। वैसे भी मेरी राय के मुताबिक 'कल्याण' नहीं, बल्कि यमन यही ठाट होना चाहिये और इसे ही शुद्ध ठाट की मान्यता मिलनी चाहिये थी। क्यूंकि इसमें सात ही स्वर शुद्ध याने तीव्र है। शुद्ध ठाट कहलाने जानेवाले बिलावल ठाटके कोमल मध्यम और कोमल निषाद का उपयोग विद्यार्थियों को सोचने पर मजबूर कर देता है।

(शास्त्र के नाम पर यही सिखाया जाने के कारण उस पर कोई बातें नहीं बनाता, यह बात अलग। वैसे भी बोलने से फायदा क्या? परीक्षा में वहीं लिखना पड़ेगा नहीं तो गुण कम हो जायेंगे।) लेकिन यमन के बारे में ऐसा संभ्रम नहीं होता।

◆ शास्त्रीय जानकारी

    पिछले 200 से लेकर 250 बरसों तक चलते आ रहे उत्तर भारतीय संगीत शास्त्र के अनुसार यमन राग कल्याण ठाटसे उत्पन्न हुआ है। वादी स्वर गांधार और संवादी स्वर निषाद है। जाती संपूर्ण है और गान समय रात का पहला प्रहर है। गान समय पर मैंने इससे पहले भी संक्षेप में लिखा हुआ है. लेकिन इस बार विस्तार से लिख रहा हूं। देखा जाये तो राग का गानसमय कौन सा होना चाहिये यह तय करने के लिए कोई भी नियम प्राचीन ग्रंथों मे लिखे हुए नहीं है। फिर भी राग का गानसमय निश्चित कर दिया गया है। इसका कारण क्या है. पता नहीं। जहां प्राचीन ग्रंथों में रागों के नाम और आज के रागों के नाम में समानता नहीं है. सुरो ने समानता नहीं है. वहां गान समय किस प्रकार से और कौन निश्चित करेंगे? कुछ तो शास्त्रीय नियम होने चाहिए, इसलिये उन्हें जारी करना इससे ज्यादा इसमें कोई अर्थ नहीं दिखाई देता। किसी भी मनुष्य ने गाना कब गुनगुनाना है और क्या गुनगुनाना है यह बात किसी और ने निश्चित करने से क्या हासिल होगा? अभी जो ठाट पद्धती चल रही है, उसके बारे में सोचा जाये तो मधुवंती जैसा राग ठाट पद्धती में गाना असंभव है। फिर दस से बढ़कर ग्यारह ठाट करके उस ग्यारहवे ठाटको अगर मधुवंती नाम दिया जाये तो क्या बिगडेगा? लेकिन नहीं, दस ठाटों में ही किसी भी तरह से तोड़ मरोड़ के सभी रागों को उसमें ही बांधना... यह थोडा निसर्ग नियमोंसे हटकर लग रहा है। हिंडोल, गौडसारंग, तोडी, मुलतानी इन रागोंमें तीव्र मध्यम है और इन्हें दिन में गाये जानेवाले रागों की मान्यता दी गई है। नियम के अनुसार देखा जाये तो तीव्र मध्यम होनेवाले राग केवल रात के समय ही गाये जाने चाहिये। एक और ऐसा भी नियम है कि 'ग' 'नी' कोमल होनेवाले रागों में तीव्र मध्यम होता ही नहीं। फिर कोमल ग और नि के साथ तीव्र म होने वाले सुरावटके राग को मधुकंस कैसे कहा जाता है? सच में देखा जाये तो राग के गाने के नियमों को बहुत पहिलेसे ही बाजूमेही रखा है, यह हमें 'दर्पण' इस ग्रंथ के-

"यथोत्काल एवैते गेया पूर्विधानतः ।
राजाज्ञया सदागेया नतु कालं विचारयेत् ।।

और 'तरंगिनी' इस ग्रंथ के

"दशदंडात्परं रात्रौ सर्वेषां गानभीरीतम्। 
रंगभुमौ नृपाज्ञायां कालदोषो न विद्यते ।।

साथ साथ श्रीमान बॅनर्जी के 'गीत सूत्रसार' (Grammer of vocal music) ग्रंथ के 58 पच्चे पर उन्होंने लिखा है...

"हमारे यहाँ राग रागिनीयों को दिन तथा रात्री के नियमित समयों पर गाने की जो प्रथा चली आ रही है, वह केवल काल्पनिक है।"

      इससे भी गान समय प्रथा में जो खोखलापन है वह साफ साफ दिखाई देता है। देखा जाये तो स्वरसमुदाय में ऐसी कोई विशेषता नहीं है कि जिसके लिए उन्हें कुछ खास समय के लिये न गाने से सुयोग्य परिणाम नहीं मिल जाता। संगीत का उद्देश सुरों के द्वारा भावना व्यक्त करके श्रोताओं का मन प्रसन्न करना केवल इतना ही है। इसका अर्थ यही है कि इसके लिये किसी विशिष्ट समय की कोई आवश्यकता नहीं है। जो भाव सुबह के समय व्यक्त हो सकते हैं या व्यक्त कर सकते हैं, वे शाम या रात के समय क्यूँ नहीं कर सकते? बिलकुल कर सकते हैं, सकना ही तो चाहिये। 'पारिजात' इस ग्रंथ में भूपाली राग सुबह के समय गाया जाता है ऐसा जिक्र है लेकिन आजके समय में वह रात्र कालीन माना जाता है।

(घनश्याम सुंदरा... यह भूपाली राग की धुन सुबह बहुत मधुर लगती है ना? सुबह के अहिर भैरव राग का 'पूछो ना कैसे मैने रैन बिताई'... यह चित्रपट का गाना रात को मन मोह लेता है ना?)

दक्षिण भारत में यमन राग सुबह के समय और भैरवी रात के समय गायी जाती है। लेकिन कुछ लोगों की राय ऐसी है कि ललित, रामकली, तोडी ऐसे राग शाम के समय गाने से गानसिद्धी बहुत अच्छे तरीके से हो जाती है। इसका मतलब यह है कि गान समय यह प्रकार याने लोगों पर बिना वजह डाला हुआ बोड़ा है। स्वर आखिर स्वर ही होता है, राग आखिर राग ही होता है, किसी श्री समय गा लेने से उसका परिणाम उतनाही असरदार होता है।

     ये बाकी चीजें छोड दिजीये, क्योंकि सच्चाई यह है कि यमन राग किसी भी हाल में सभी का पसंदीदा राग है। इसकी विशेषता यह है कि प्रतिभाशाली गायक, वादक और संगीतकारों पे यह बहुत कम समय में प्रसन्न हो जाता है और उन्हें मनचाहा वर भी दे जाता है। लेकिन अगर कोई इसमें यहाँ वहाँ भटक गया तो उसका मजाक उड़ाया जाएगा यह बात तो तय है। आपको अगर यमन गाना आ गया तो बाकी सब राग आप गा सकते हैं ऐसा बुजुर्ग लोक कहते हैं। इस राग को गाया नहीं ऐसा एक भी गायक या बजानेवाला ढूंढना केवल ना मुमकिन है. इतना यह मधुर है। भारत में सभी भाषाओंमें मिला कर जितने गाने इस राग में बने हैं, उतने गाने किसी अन्य राग में अब तक नहीं तय्यार हुए। सुगम संगीतकारों के लिए तो यह राग एक वरदान की तरह है। मन की किसी भी भावनाको इस राग के द्वारे हम पुरी ताकत से व्यक्त कर सकते हैं, इतनी क्षमता राग यमन में है। यह एक संगीतकार के नाते में विश्वास के साथ कह सकता हूं।

     मैंने की हुई यमन रागकी विविध मूड़ की रचनाओं पर कोल्हापूर के संगीत समीक्षक एडवोकेट राम जोशीजी (जो आज इस दुनिया में नहीं हैं) के एक लेखांक का छोटासा हिसा यहाँ प्रस्तुत करने का मोह में नहीं टाल सकता।

जोशी जी कहते हैं.....

यमन यह ऐसा राग है कि हर कोई संगीतकार उससे मोहब्बत कर बैठता है। कदमजी भी उससे कैसे परे होंगे? उन्होंने यमन राग में बहुत ज्यादा रचनाएं प्रस्तुत की है लेकिन फिर भी हर एक रचना स्वतंत्र है. अलग है, वो किसी एक छप्पे में से निकली हुई भगवान की मुर्तियां नहीं है। हर एक धून को उसका अलग चेहरा है, रंग है, रूप है, व्यक्तित्व है। किसी भी कार्यक्रम की शुरुआत वे खुद के लिखे इस काव्य से करते हैं।

'सरगम तुझ्याचसाठी गीते तुझ्याचसाठी 
गातो गझल मराठी प्रिये तुझ्याचसाठी'

दादरा की इस बंदिशकी यमन राग में यह रचना एकदम सिधीसाधी। सुगम संगीत में, शास्त्रीय संगीत के व्याकरण और नियमों को कोई भी स्थान नहीं। यहाँ केवल अपेक्षा है कि जो कुछ भी कानों पर पड़ता है उसमें सुंदरता, मधुरता और मोहकता होनी चाहिये। इसलिये यह बात सरल है कि यहाँ शुद्ध यमन खोजने का प्रयास मत कीजिये। क्यूंकि वह यमन, कल्याण के साथ पलभर में दोस्ती कर लेता है और जब इन दोनों ही माध्यमों के हलके से मिलाप की नजाकत जब समझ में आती है, तो बिना झिझक़ उसे दाद दिए बगैर और कुछ श्रोताओंके हाथों में नहीं रहता। यह अनुभूती मैंने उनके हर एक यमन में ले ली है और हमेशा लेता रहूंगा।

मी असा ह्या बासरीचा सूर होतो, 
नेहमी ओठांपुनी मी दूर होतो'

इस गजल की धुन भी उसी तरह की है। धृपद की दुसरी पंक्ती जिसे क्रॉस लाईन कहा जाता है, उसकी रचना और स्वर समूह की रचना बहुत ही मधुर है। उस में 'सूर होतो' यहाँ पर तीव्र सप्तक के षड्‌ज सूरका इस शब्द के लिए इतनी नजाकत से उपयोग किया ही है, साथ ही वह पंक्ती गाते समय 'सूर' यह शब्द और तीव्र षड्‌ज का हलका लेकिन फिर भी ठोस लगाव और रूपक ताल का एक पुरा ज्यादा आवर्तन पूर्ण होने तक जो लंबे रामय तक ठहर जाता है वह अतिसुंदर लगता है। संगीत रचनाकार के पास केवल सांगीतिक अलंकारोंका खजाना होने से काम नहीं चलता बल्की सूर के पोशाख को अच्छा लगे ऐसा केवल एकही अलंकार संगीत का श्रवण सौंदर्य बढ़ाता है। संगीतकार सही मायने में खुद की रचना खुद के पुरे सामर्थ्य के साथ और अपेक्षित परिणाम के साथ गा सकता है। यह अनुभव मास्टर कृष्णराव से लेकर सुधीर, श्रीधर फडके, वसंत पवार, राम कदम यशवंत देव इन सभी के साथ महसूस होता है। सुधाकर कदम खुद गायक होने के कारण वे भी इस बात को अपवाद नहीं है। 'सूर होतो' यहाँ पर शब्दकला और स्वर मधुरता इन दोनों के एक अनोखे, सुंदर मिलाप का अनुभव आता है।

'सांज घनाच्या मिटल्या ओळी'

यह भी एक बहुत ही कोमल भावनाओंको खोलकर दिखानेवाली सुंदर काव्यरचना है। कदमजी ने बंदिश भी यमन में ही बांधी है। इसकी क्रॉस लाईन के आखिर में 'क्षितिजावरती' यहाँ पर उन्होंने नि और कोमल ऋषभ का बहुत ही कुशलतापूर्ण उपयोग करके यमन की पुरी व्यक्तिरेखा बदल डाली है। इतना ही नहीं, उस ऋषभ की योजना के कारण 'क्षितिज' इस शब्द का अर्थ प्रतीत करने के लिए कोमल रिषभ को अन्य कोई पर्याय नहीं है यह तुरंत ही समझ में आता है। पुरीया रागका इसमें होनेवाला दर्शन और साथ ही अंतरे के बाद आनेवाली सुरावट यह सब बहुत अच्छे तरीके से मेलजोल खाती है। सुप्रसिद्ध कवी अनिल कांबलेजी के-

'जवळ येता तुझ्या दूर सरतेस तू
ऐनवेळी अशी काय करतेस तू'

सुनाई। लेकिन खासियत यह है कि उससे वही धून इस गीत की तर्जभी यमन में ही बांधी है। यमन की बहुत ही चुलबुली स्वररचना खेमटा के अंग से लगनेवाला दादरा का ठेका, लय थोड़ी उड़ती उड़ती और इसलिये उसे विशिष्ट अर्थ देनेवाली, इस गीत को बहुत सही न्याय देती है। सौंदर्य स्थलोंका निर्देश करने की इच्छा हो तो 'ऐनवेळी अशी काय' इस पंक्ती की अधीरता दर्शाने के लिये बहुत ही सुयोग्य ऐसी स्वर समूह रचना करना बिलकुल ठीक होगा। 'सामग, सामगधप आदी का आनंद अपने आप ही अनुभव करने योग्य है। 'तुझ्या नभाला गडे किनारे' यह भी यमन की एक श्रवणीय रचना है। यमन इस एकही राग की चारों रचनायें उन्होंने मुझे एक के बाद एक सुनाई।लेकिन खासियत यह है कि उसमे वही धुन 
बार बार नहीं दोहराई है। स्वर रचना एक जैसी बिलकुल भी नहीं है, उसमें एक अलगपन है, जो किसी भी श्रेष्ठ संगीत रचनाकार की विशेषता मानी जाती है। सुगम संगीत में आकर्षक मुखड़े को याने धृपद को विशेष महत्व है। कदम जी की स्वररचनाओं के मुखड़े बहुतही आकर्षक होते हैं। उससे भी ज्यादा कुशलता और महत्व होता है, वह मुखड़े के बाद आनेवाले क्रॉसको। क्यूंकि संगीत रचना की आकर्षकता का वह प्रमुख स्थान है। मुखड़े की धुन को अनुरूप या फिर उससे भी आगे जाकर उसका सौंदर्य बढानेवाली आरोही पुरी करके अवरोही और षड्ज पर विराम होनेवाली स्वररचना, यह काम बहुत कठीन होता है। अगर ऐसा नहीं होता तो पुरी धून फंस जाती है। कई संगीत रचनाओं में ये दोष दिखाई देते है। संगीतकार को अपनी पुरी बुद्धी यहाँ पर खर्च करनी पडती है। सुधाकर कदम जी की रचनायें इस कसौटी पर पुरी उतरती है और इसीलिए वे मन को मोह लेती है। अंतरे के बाद आनेवाली धुन पहली धुनके हाथ में हाथ डालकर आगे बढ़ती है। किसी अन्य राग को जाते जाते धीरेसे स्पर्श करना याने शहद की अंगुली चखने जैसा बड़ा ही मधुर होता है। अर्थ यही है कि अंतिम पंक्तियां पुरी तरह से हायलाईट का उजाला कर देती है। बिलकुल उसी तरह की स्वररचना भी कदम जी बड़े सामर्थ्य से कर दिखा देते हैं। यमन एक ही, लेकिन उसके रूप हजार, उसके रंग हजार और उसके ढंग भी हजारों और उसकी यह अनोखी अदाकारी जिसे हम मोहजाल या मायाजाल कह सकते हैं, जब हम पर डाला जाता है तब खुद माहीर रसिक होकर भी हम फंस जाते हैं। बाद में समझ आता है कि यह यमनने किया हुआ कपट था लेकिन फिर भी वह कपट बहुत ही मधुर था और मासूम भी था।

     यमन राग अभंग से लेकर लावणी तक के सभी प्रकारों में रंग जाता है या दुसरों को रंगाता है। मराठी भाषा में करीब करीब सभी संगीतकारोंने इसमें स्वररचना की हुई है। अगर उनकीं एक लिस्ट बनाई जाये तो फिर वह एक बडा लेख होगा। फिर भी कुछ रचनाओं का जिक्र किये बिना यह लेख पुरा नहीं होगा।

'घूंदी कळ्यांना...

'का रे दुरावा...'

'पराधीन आहे जगती....

'तोच चंद्रमा...'

'पिकल्या पानाचा देठ की ग हिरवा..."

'कबीराचे शेले विणतो...'

'सुखकर्ता दुखहर्ता... (आरती)'

'जिये सागरा धरणी मिळते...'

'जीवनात ही घडी...'

'शुक तारा...'

'तिन्ही सांजा सखे मिळाल्या...'

साथही कई नाट्यगीत भी इसमें शामील है। उसने अभिषेकी बुआ का मत्स्वगंधा नाटक के लिये रचा हुआ स्वरशिल्प 'देवाघरचे ज्ञात कुणाला...' हुये बहुत पसंद है। गाया है रामदास कामतजी ने। हिंदी चित्रपट सृष्टी में भी यमन ने धूम मचायी है। सैगल के 'मैं क्या जानू क्या जादू है..." से लेकर आज के 'तुम दिल की धड़कन हो... तक.... इसमें सुंदर सुंदर गीत है।

... 'मन रे तू काहे न धीर धरे.....

'जिया ले गयो...'.

'जा रे बदरा बैरी जा.....

'वो हँसके मिले हमको.....

'पान खाये सैयाँ.....

'इस मोडपर आते है.....

'चंदन सा बदन...'.

'आँसू भरी है.....

जब दीप जले आना....
ऐसे कितने गानोंकी बात करेंगे...?

उर्दू ग़ज़ल में 'रंजिश ही सही....' यह ग़ज़ल याने मिलोंका पत्थर है। साथ में 'वो मुझसे हुये..... 'शाम-ए-फ़िराक...' ये गजलें और 'आज जाने की ज़िद ना करो...' यह फ़रीदा खानम की गायी हुई रचना याने कमाल की उंचाई।
'मरीज़े मुहब्बत...', 'दिलवालों क्या देख रहे हो...' ये गुलाम अली की गजलें अपना अनोखा रंग दिखाती है।
'क्यूँ मुझे मौत के पैग़ाम दिए जाते है...' (शोभा गुर्टू), 'तुम आए हो तो शबे इंतज़ार गुजरी है...' (इकबाल बानो), 'आपका इंतज़ार कौन करे...' (शुमोना राय) ये गजलें भी बहुत श्रवणीय है। उर्दू गझल गायक मेहदी हसन साहबने गायी हुई अहमद फ़राज़ की 'रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ...' इस गजल ने लोकप्रियता के सारे झंडे उखाड दिए। (देखा जाये तो यह गीत (गझल) 1972 की 'मोहब्बत' इस पाकिस्तानी फिल्म का है और इसके संगीतकार निसार बज्मी हैं। लेकिन खां साहब ने महफिल में गाकर इस रचना का सोना किया) इस गजल के साथ साथ यमन राग की लोकप्रियता (गजल गायन के संदर्भ में) आसमां को छू गई। पहले से ही मधुर होनेवाले इस राग में फराज साहब के शब्द, खौँ साहब की भरीपुरी मिठी आवाज और उन शब्दोंको जचनेवाली, बिनती करनेवाली बंदिश इस प्रकार का बहुतही उंचे दर्जे का संगम इसमें दिखाई देता है।

     ऐसी ही बिनती मैंने स्वरबद्ध की हुई तुझ्यासाठीच भी इस अलबम के 'तुझ्यासाठीच मी....... इस गजल में आपको दिखाई देगी। (अर्थात सच्चे परीक्षक आपही हैं) ऐसा यह यमन.... तो फिर सुनिए... केवल मध्य और मंद्र सप्तक की यह बंदिश, वैशाली माडे की आवाज में..

तुझ्यासाठीच मी माझे तराणे छेडले होते
तुझ्यासाठीच स्वप्नांचे दिवे मी लावले होते

-सुधाकर कदम

हिंदी अनुवादः डॉ. आरती मोने


 

Tuesday, July 22, 2025

 .                  #साठवणीतील_आठवण


१९८० मध्ये जेव्हा सुरेश भट आणि मी मराठी गझल व गझल गायकीच्या प्रचार,प्रसारासाठी महाराष्ट्राच्या भ्रमंतीवर निघालो होतो, तेव्हाच्या अगदी सुरवातीच्या काळात सुरेश भटांच्या उपस्थितीत गायिलेली ही गझल आहे. मी स्वतः हार्मोनियम वाजवून गात असल्यामुळे त्या काळी तबला वादक तालमणी प्रल्हाद माहुलकर आणि मी,असे दोघे मिळून कार्यक्रम करायचो.त्यावेळच्या ध्वनिव्यवस्थापकाने कॅसेटवर  हे ध्वनिमुद्रण केले होते. कॅसेटवरून कसेबसे कॉम्प्युटरवर उतरवले.ते आपणासमोर सादर आहे.आवडण्या न आवडण्याचे स्वातंत्र्य आपणास आहे.चांगली असो वा वाईट,आपली प्रतिक्रिया मात्र आवश्यक.


सूर्य केव्हाच अंधारला यार हो

या नवा सूर्य आणू चला यार हो


हे नवे फक्त आले पहारेकरी

कैदखाना नवा कोठला यार हो


जे न बोलायचे तेच मी बोलतो

मीच माणूस नाही भला यार हो


ओळखीचा निघे रोज मारेकरी

ओळखीचाच धोका मला यार हो


आज घालू नका हार माझ्या गळा

मी कुणाचा गळा कापला यार हो


-#सुरेश_भट


●heasphone please...

 .                            #अर्चना 

                #साठवणीतील_आठवण 


१९८०/८१/८२ या काळात पुण्यातील तेव्हाचे नवोदित, समवयस्क गझलकार इलाही जमादार,अनिल कांबळे,

म.भा.चव्हाण,रमण रणदिवे,प्रदीप निफाडकर,दीपक करंदीकर वगैरे वगैरे मंडळी मी महाराष्ट्रातील एकमेव मराठी गझल गायक असल्यामुळे फार सलोख्याने,

मित्रत्वाच्या नात्याने वागायचे.यातील बहुतेकांच्या रचना स्वरबद्ध करून माझ्या कार्यक्रमात गायिलो आहे.सुरेश भट आणि मी,आम्ही विदर्भ,मराठवाडा,पश्चिम महाराष्ट्र पिंजून काढल्यानंतर,  पुण्यात माझे महाराष्ट्र साहित्य परिषद,फर्ग्युसन कॉलेज,राजवाडे सभागृग,गांधर्व संगीत विद्यालय असे अनेक कार्यक्रम होत गेले. पुढे १९८४ नंतर कौटुंबिक जबाबदाऱ्या वाढल्यामुळे आर्णी ते पुणे,मुंबई संपर्क हळू हळू कमी झाला. महाराष्ट्र शासनाच्या #गीतमंच विभागासाठी बरीच गाणी स्वरबद्ध करून दिल्यामुळे 'रिसोर्स पर्सन' म्हणून व बालचित्रवाणी करीता गाणी रेकॉर्ड करायची असल्याने अधून मधूम पुण्यात येणे होत होते.

      २००३ मध्ये स्वेच्छानिवृत्ती घेऊन पुण्यात स्थायिक झालो तेव्हा वरील काही मंडळी 'प्रतिथयश' या पदाला पोहोचली होती.मी अनेकांशी संवाद साधण्याचा प्रयत्न केला परंतु यातील एक-दोन सोडले तर सर्वजण आपल्या तोऱ्यात असलेले दिसले.म्हणजे खास पुणेरी...तरी पण सगळ्यांनी एकत्र यावे म्हणून दर महिन्याला 'गझलकट्टा' आयोजित करायचो.प्रतिसाद चांगला मिळायचा पण आर्थिक झळ मात्र मलाच बसायची.याच दरम्यान बालचित्रवाणीला असलेले मित्र विकास कशाळकर यांना काही बालगीतं स्वरबद्ध करून हवी होती.(या अगोदर मी आर्णीला असताना कुमाग्रजांचे 'महाराष्ट्रगीत' व विंदा करंडीकरांचे 'उठ उठ सह्याद्रे' ही दोन गीते बालचित्रवाणीकरिता त्यांनी माझ्याकडून स्वरबद्ध करून घेतली होती.) त्यांनी मला विचारले.मी होकार दिला.व मीरा सिरसमकर यांची दोन गीतं नेहा दाऊदखाने (सध्याची नेहा सिन्हा) या बाळ गायिकेकडून गाऊन घेतली.ही गाणी माझ्या वेगळ्या बाजामुळे छान झाली.त्यावरून सिरसमकरांच्या डोक्यात बालगीतांचा अलबम करण्याची कल्पना आली.आणि मग 'खूप मजा करू' हा बालगीतांचा अलबम आकाराला आला.फाउंटन म्युझिक कंपनी तर्फे तो बाजारात आला.पुण्यात आल्यानंतरचे हे माझे पहिले काम होते.

      आर्णीला असताना नागपूरच्या कवयित्री आशा पांडे यांची गीते-भक्तिगीते वर्तमानपत्रांमधून प्रकाशित व्हायच्या.त्यांच्या ओघवती लिखाणामुळे परिचय नसतानाही मी अनेक गीते स्वरबद्ध करून संगीत विद्यालयाच्या विद्यार्थ्यांकडून गाऊन घ्यायचो.गझलकार श्रीकृष्ण राऊत यांनी आशा पांडेंची ओळख होती.त्यानेच मला त्यांना भेटायला सांगितले.एकदा आकाशवाणीचे (नागपूर) ध्वनिमुद्रण संपल्यानंतर आशा पांडे यांना भेटलो.गप्पा-गोष्टी-चर्चा झाल्या त्यानंतर विषय संपला.मी पुण्यात स्थायिक झसल्यावर त्यांनी भक्तीगीतांच्या अलबमचे प्रपोजल समोर ठेवले.मी तत्काळ स्वीकारले.आणि कामाला लागलो. अभिषेकी बुवांशी जुनाच संबंध असल्यामुळे व मला थोड्याफार प्रमाणात त्यांचे मार्गदर्शन लाभलेले असल्यामुळे ते गुरुसमानच होते.आणि तसेच गाणे शौनकचे होते. म्हणून शौनक अभिषेकी आणि अनुराधा मराठे यांच्या आवाजात अलबम करायचे निश्चित केले.हे प्रपोजल घेऊन मी शौनकला भेटलो.यवतमाळच्या एका कार्यक्रमाल बुवांसोबत बालशौनक पण होता.त्यांच्या जेवणाची व्यवस्था मी बघत होतो.ती आठवण ताजी झाली.आणि शौनकचा होकार आला. अनुराधाबाई पण तयार झाल्या आणि आमच्या रिहलस सुरू झाल्या अनुराधा बाईंची प्रॅक्टीस त्यांच्याकडे व्हायची. शौनकच्या प्रॅक्टीससाठी कधी मी शौनककडे जायचो तर कधी शौनक माझ्याकडे यायचे.शौनक कडील प्रॅक्टीस विद्याताई आवर्जून ऐकायच्या.आणि प्रॅक्टीस संपली की पहिल्या मजल्यावरील संगीत कक्षातून खाली आलो की चालींवर छान छान प्रतिक्रिया देऊन प्रोत्साहित करायच्या.खरे म्हणजे माझी आणि त्यांची ही पहिलीच भेट होती.पण पहिल्या भेटीत परकेपणा जाणवला नाही.या महिना दीड महिन्याच्या कालखंडात त्यांच्याशी अनेकदा मनमोकळ्या गप्पा व्हायच्या.त्यांच्या या प्रेममय वागण्यामुळे इच्छा असूनही आर्थिक परिस्थितीमुळे व कौटुंबिक जबाबदरीमुळे बुवांकडे गुरुकुल पद्धतीने शिकू न शकल्याची खंत मनात घर करून गेली.नंतर हा अलबम पुण्यातील एलकॉम स्टुडिओमध्ये ध्वनिमुद्रित झाला.याचे संगीत संयोजन मिलिंद गुणे यांनी केले होते.मिलिंद सोबतचा हा माझा पहिला प्रोजेक्ट होता.त्यानंतर आमची जी नाळ जुळली ती आजतागायत जुळून आहे.या अलबमचे शीर्षक होते 'अर्चना'.याच्या लोकार्पणाचा भव्य सोहळा कोथरूडच्या यशवंतराव चव्हाण नाट्यगृहात कवी  सुधीर मोघे आणि कवी गंगाधर महांबरे यांचे प्रमुख उपस्थितीत पार पडला.हा अलबम टी सिरीजतर्फे बाजारात आला होता.वर्ष होते २००६. हा माझा दुसरा अलबम. त्यानंतर संगीतकार म्हणून माझ्या कामाने जो वेग घेतला तो आजतागायत कायम आहे.हे अभिषेकी बुवांचे व विद्याताईंचे आशीर्वादच समजतो.

Monday, May 26, 2025


 .              #उर्दू_ग़ज़ल #मेहफ़िल


मैं के तनहाई की चादर तानकर लेटा रहा

और ज़माना जाने क्या क्या दासतां कहता रहा


क्या मिला है चाँद को एक बेजुबानी के सिवा

ज़िंदगी भर जो पराई आग मे जलता रहा


ज़िंदगी मेरी है उस बेआब मोती की तरह

जो समंदर की तहो में रह के भी प्यासा रहा


शायर - हनीफ़ साग़र 

गुलुकारा - प्राजक्ता सावरकर शिंदे

मोसिकार - 'शान-ए-ग़ज़ल' सुधाकर कदम

तबला - पं. किशोर कोरडे


●mobile REC...Headphone please.





संगीत आणि साहित्य :