गझल

माझी मराठी गझल गायकी

मराठी गझल गायकीला तशी कोणतीही परंपरा नाही.माझ्या अगोदर मराठी गझल,गझलसारखी गाण्याचा फ़ारसा प्रयत्न कोणीच केला नसल्यामुळे मराठी गझल गाणे हे माझ्यासाठी आव्हान होते.मराठीमध्ये गझल जशी उर्दूकडून आली तशीच मराठी गझल गायकीही उर्दू गझल गायकांकडून उचलावी लागली.माझी गायकी किंवा ढंग हा पाकिस्तानचे मेहदी हसन,फ़रिदा खानम,गुलाम अली व आपले जगजीत सिंग ह्यांच्या गायकीवरुन तयार झाला आहे.त्या काळात विदर्भातील यवतमाळ जिल्ह्यातील आर्णी सारख्या आडवळणी गावात वरील गायकांच्या ध्वनिमुद्रिका सुध्दा मिळत नव्हत्या.पाकिस्तान रेडिओवरुन जे काही ऐकायला मिळायचे त्यावरुन मला जेवढे शिकता येईल तेवढे शिकत गेलो.पुढे स्व.सुरेश भटांनी मला मेहदी हसन,फ़रीदा खानम, यांच्या ध्वनिफ़िती दिल्या.हळूहळू गुलाम अली,जगजीत सिंग,बेगम अख्तर यांच्याही गायकीचा अभ्यास करुन मी माझा वेगळा असा बाज निर्माण केला. (पृष्ठ क्रमांक क्लिक केल्यास एक- एक पृष्ठ आपल्याला वाचता येईल)

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Friday, August 15, 2025

तुझ्यासाठीच मी...राग यमनपर आधारित मराठी गझल

●अखिल भारतीय गांधर्व महाविद्यालय मंडल प्रकाशन,
'#संगीत_कला_विहार', अगस्त २०२५.#राग  #यमन

     यमन राग के नाम के बारे में कई सारी भिन्न भिन्न राय हैं। कुछ लोग इसे फारसी भाषा के 'इमन' का यमन में हुआ बदलाव मानते हैं। उसी तरह यह राग अमीर खुसरो नाम के अल्लाउद्दीन खिलजी के समय के विद्वान संगीतकार ने प्रचलित किया है ऐसा भी माना जाता है। यह बात निश्चित है कि खुसरो के समय में नये नये राग प्रचार में आ गये। इन में फारसी, इरानी सुरावटें और भारतीय रागों का मिलाप हो गया था। गोपाल नायक यह संगीत का एक बड़ा विद्वान खुसरो का समकालीन था। दक्षिण के पंडित यमन राग यह 'यमुना कल्याण' राग का एक प्रकार समझते है। इस नाम का उल्लेख दक्षिण के ग्रंथों में भी है लेकिन यमुना कल्याण और यमन इन दो रागों में नाम के सिवा और कोई भी समानता नहीं है। भातखंडे जी ने लिखे हुए उत्तर भारतीय संगीत शास्त्र इस ग्रंथ में यह राग कल्याण ठाटसे उत्पन्न हुआ है ऐसा लिखा है, लेकिन भातखंडे जी का पुरा आदर करके में यह कहना चाहता हूं कि इसका भी कुछ आधार नहीं है। (मेरी बात कई लोगों को पसंद नहीं आयेगी) लेकिन पुराने ग्रंथों में भी यमन नाम के राग का कहीं भी जिक्र किया हुआ नहीं दिखाई देता है। और किसी एक शब्द से इस राग का नाम आया है ऐसा भी लगता नहीं क्यूँ कि राग निर्मिती यह एक प्रक्रिया आहे. जो अचानक से होनेवाली नहीं है।

     कुछ लोग इसे यमन कल्याण भी बोलते हैं लेकिन इस में भी कुछ खास अर्थ नहीं है। यमन राग में विवादी सुरों की तरह कभी कभी कोमल मध्यम लगाने से वह यमन कल्याण हो जाता है। इसे भी किसी ग्रंथ का आधार नहीं है। इस प्रकार एक स्वर बदल कर या एक सूर जादा लगाकर या फिर विवादी के स्तर पर किसी अलग सूर का प्रयोग करके वह प्रचलित करना ऐसे कई उदाहरण हमें दिखाई देते हैं लेकिन वो सब छोड़ दिजीये। इसके बावजूद भी यमन राग बहुत लोकप्रिय है इसमें कोई संदेह नहीं। मैं तो इसे 'पैदाइशी अमीर' राग कहता हूं। इस पर अगर लिखा जाये तो सुरज, सागर, अवकाश या धूमकेतू पर लिखने जैसा है। इतना बड़ा विस्तार रखनेवाला दूसरा कोई राग मैंने कभी देखा नहीं। वैसे भी मेरी राय के मुताबिक 'कल्याण' नहीं, बल्कि यमन यही ठाट होना चाहिये और इसे ही शुद्ध ठाट की मान्यता मिलनी चाहिये थी। क्यूंकि इसमें सात ही स्वर शुद्ध याने तीव्र है। शुद्ध ठाट कहलाने जानेवाले बिलावल ठाटके कोमल मध्यम और कोमल निषाद का उपयोग विद्यार्थियों को सोचने पर मजबूर कर देता है।

(शास्त्र के नाम पर यही सिखाया जाने के कारण उस पर कोई बातें नहीं बनाता, यह बात अलग। वैसे भी बोलने से फायदा क्या? परीक्षा में वहीं लिखना पड़ेगा नहीं तो गुण कम हो जायेंगे।) लेकिन यमन के बारे में ऐसा संभ्रम नहीं होता।

◆ शास्त्रीय जानकारी

    पिछले 200 से लेकर 250 बरसों तक चलते आ रहे उत्तर भारतीय संगीत शास्त्र के अनुसार यमन राग कल्याण ठाटसे उत्पन्न हुआ है। वादी स्वर गांधार और संवादी स्वर निषाद है। जाती संपूर्ण है और गान समय रात का पहला प्रहर है। गान समय पर मैंने इससे पहले भी संक्षेप में लिखा हुआ है. लेकिन इस बार विस्तार से लिख रहा हूं। देखा जाये तो राग का गानसमय कौन सा होना चाहिये यह तय करने के लिए कोई भी नियम प्राचीन ग्रंथों मे लिखे हुए नहीं है। फिर भी राग का गानसमय निश्चित कर दिया गया है। इसका कारण क्या है. पता नहीं। जहां प्राचीन ग्रंथों में रागों के नाम और आज के रागों के नाम में समानता नहीं है. सुरो ने समानता नहीं है. वहां गान समय किस प्रकार से और कौन निश्चित करेंगे? कुछ तो शास्त्रीय नियम होने चाहिए, इसलिये उन्हें जारी करना इससे ज्यादा इसमें कोई अर्थ नहीं दिखाई देता। किसी भी मनुष्य ने गाना कब गुनगुनाना है और क्या गुनगुनाना है यह बात किसी और ने निश्चित करने से क्या हासिल होगा? अभी जो ठाट पद्धती चल रही है, उसके बारे में सोचा जाये तो मधुवंती जैसा राग ठाट पद्धती में गाना असंभव है। फिर दस से बढ़कर ग्यारह ठाट करके उस ग्यारहवे ठाटको अगर मधुवंती नाम दिया जाये तो क्या बिगडेगा? लेकिन नहीं, दस ठाटों में ही किसी भी तरह से तोड़ मरोड़ के सभी रागों को उसमें ही बांधना... यह थोडा निसर्ग नियमोंसे हटकर लग रहा है। हिंडोल, गौडसारंग, तोडी, मुलतानी इन रागोंमें तीव्र मध्यम है और इन्हें दिन में गाये जानेवाले रागों की मान्यता दी गई है। नियम के अनुसार देखा जाये तो तीव्र मध्यम होनेवाले राग केवल रात के समय ही गाये जाने चाहिये। एक और ऐसा भी नियम है कि 'ग' 'नी' कोमल होनेवाले रागों में तीव्र मध्यम होता ही नहीं। फिर कोमल ग और नि के साथ तीव्र म होने वाले सुरावटके राग को मधुकंस कैसे कहा जाता है? सच में देखा जाये तो राग के गाने के नियमों को बहुत पहिलेसे ही बाजूमेही रखा है, यह हमें 'दर्पण' इस ग्रंथ के-

"यथोत्काल एवैते गेया पूर्विधानतः ।
राजाज्ञया सदागेया नतु कालं विचारयेत् ।।

और 'तरंगिनी' इस ग्रंथ के

"दशदंडात्परं रात्रौ सर्वेषां गानभीरीतम्। 
रंगभुमौ नृपाज्ञायां कालदोषो न विद्यते ।।

साथ साथ श्रीमान बॅनर्जी के 'गीत सूत्रसार' (Grammer of vocal music) ग्रंथ के 58 पच्चे पर उन्होंने लिखा है...

"हमारे यहाँ राग रागिनीयों को दिन तथा रात्री के नियमित समयों पर गाने की जो प्रथा चली आ रही है, वह केवल काल्पनिक है।"

      इससे भी गान समय प्रथा में जो खोखलापन है वह साफ साफ दिखाई देता है। देखा जाये तो स्वरसमुदाय में ऐसी कोई विशेषता नहीं है कि जिसके लिए उन्हें कुछ खास समय के लिये न गाने से सुयोग्य परिणाम नहीं मिल जाता। संगीत का उद्देश सुरों के द्वारा भावना व्यक्त करके श्रोताओं का मन प्रसन्न करना केवल इतना ही है। इसका अर्थ यही है कि इसके लिये किसी विशिष्ट समय की कोई आवश्यकता नहीं है। जो भाव सुबह के समय व्यक्त हो सकते हैं या व्यक्त कर सकते हैं, वे शाम या रात के समय क्यूँ नहीं कर सकते? बिलकुल कर सकते हैं, सकना ही तो चाहिये। 'पारिजात' इस ग्रंथ में भूपाली राग सुबह के समय गाया जाता है ऐसा जिक्र है लेकिन आजके समय में वह रात्र कालीन माना जाता है।

(घनश्याम सुंदरा... यह भूपाली राग की धुन सुबह बहुत मधुर लगती है ना? सुबह के अहिर भैरव राग का 'पूछो ना कैसे मैने रैन बिताई'... यह चित्रपट का गाना रात को मन मोह लेता है ना?)

दक्षिण भारत में यमन राग सुबह के समय और भैरवी रात के समय गायी जाती है। लेकिन कुछ लोगों की राय ऐसी है कि ललित, रामकली, तोडी ऐसे राग शाम के समय गाने से गानसिद्धी बहुत अच्छे तरीके से हो जाती है। इसका मतलब यह है कि गान समय यह प्रकार याने लोगों पर बिना वजह डाला हुआ बोड़ा है। स्वर आखिर स्वर ही होता है, राग आखिर राग ही होता है, किसी श्री समय गा लेने से उसका परिणाम उतनाही असरदार होता है।

     ये बाकी चीजें छोड दिजीये, क्योंकि सच्चाई यह है कि यमन राग किसी भी हाल में सभी का पसंदीदा राग है। इसकी विशेषता यह है कि प्रतिभाशाली गायक, वादक और संगीतकारों पे यह बहुत कम समय में प्रसन्न हो जाता है और उन्हें मनचाहा वर भी दे जाता है। लेकिन अगर कोई इसमें यहाँ वहाँ भटक गया तो उसका मजाक उड़ाया जाएगा यह बात तो तय है। आपको अगर यमन गाना आ गया तो बाकी सब राग आप गा सकते हैं ऐसा बुजुर्ग लोक कहते हैं। इस राग को गाया नहीं ऐसा एक भी गायक या बजानेवाला ढूंढना केवल ना मुमकिन है. इतना यह मधुर है। भारत में सभी भाषाओंमें मिला कर जितने गाने इस राग में बने हैं, उतने गाने किसी अन्य राग में अब तक नहीं तय्यार हुए। सुगम संगीतकारों के लिए तो यह राग एक वरदान की तरह है। मन की किसी भी भावनाको इस राग के द्वारे हम पुरी ताकत से व्यक्त कर सकते हैं, इतनी क्षमता राग यमन में है। यह एक संगीतकार के नाते में विश्वास के साथ कह सकता हूं।

     मैंने की हुई यमन रागकी विविध मूड़ की रचनाओं पर कोल्हापूर के संगीत समीक्षक एडवोकेट राम जोशीजी (जो आज इस दुनिया में नहीं हैं) के एक लेखांक का छोटासा हिसा यहाँ प्रस्तुत करने का मोह में नहीं टाल सकता।

जोशी जी कहते हैं.....

यमन यह ऐसा राग है कि हर कोई संगीतकार उससे मोहब्बत कर बैठता है। कदमजी भी उससे कैसे परे होंगे? उन्होंने यमन राग में बहुत ज्यादा रचनाएं प्रस्तुत की है लेकिन फिर भी हर एक रचना स्वतंत्र है. अलग है, वो किसी एक छप्पे में से निकली हुई भगवान की मुर्तियां नहीं है। हर एक धून को उसका अलग चेहरा है, रंग है, रूप है, व्यक्तित्व है। किसी भी कार्यक्रम की शुरुआत वे खुद के लिखे इस काव्य से करते हैं।

'सरगम तुझ्याचसाठी गीते तुझ्याचसाठी 
गातो गझल मराठी प्रिये तुझ्याचसाठी'

दादरा की इस बंदिशकी यमन राग में यह रचना एकदम सिधीसाधी। सुगम संगीत में, शास्त्रीय संगीत के व्याकरण और नियमों को कोई भी स्थान नहीं। यहाँ केवल अपेक्षा है कि जो कुछ भी कानों पर पड़ता है उसमें सुंदरता, मधुरता और मोहकता होनी चाहिये। इसलिये यह बात सरल है कि यहाँ शुद्ध यमन खोजने का प्रयास मत कीजिये। क्यूंकि वह यमन, कल्याण के साथ पलभर में दोस्ती कर लेता है और जब इन दोनों ही माध्यमों के हलके से मिलाप की नजाकत जब समझ में आती है, तो बिना झिझक़ उसे दाद दिए बगैर और कुछ श्रोताओंके हाथों में नहीं रहता। यह अनुभूती मैंने उनके हर एक यमन में ले ली है और हमेशा लेता रहूंगा।

मी असा ह्या बासरीचा सूर होतो, 
नेहमी ओठांपुनी मी दूर होतो'

इस गजल की धुन भी उसी तरह की है। धृपद की दुसरी पंक्ती जिसे क्रॉस लाईन कहा जाता है, उसकी रचना और स्वर समूह की रचना बहुत ही मधुर है। उस में 'सूर होतो' यहाँ पर तीव्र सप्तक के षड्‌ज सूरका इस शब्द के लिए इतनी नजाकत से उपयोग किया ही है, साथ ही वह पंक्ती गाते समय 'सूर' यह शब्द और तीव्र षड्‌ज का हलका लेकिन फिर भी ठोस लगाव और रूपक ताल का एक पुरा ज्यादा आवर्तन पूर्ण होने तक जो लंबे रामय तक ठहर जाता है वह अतिसुंदर लगता है। संगीत रचनाकार के पास केवल सांगीतिक अलंकारोंका खजाना होने से काम नहीं चलता बल्की सूर के पोशाख को अच्छा लगे ऐसा केवल एकही अलंकार संगीत का श्रवण सौंदर्य बढ़ाता है। संगीतकार सही मायने में खुद की रचना खुद के पुरे सामर्थ्य के साथ और अपेक्षित परिणाम के साथ गा सकता है। यह अनुभव मास्टर कृष्णराव से लेकर सुधीर, श्रीधर फडके, वसंत पवार, राम कदम यशवंत देव इन सभी के साथ महसूस होता है। सुधाकर कदम खुद गायक होने के कारण वे भी इस बात को अपवाद नहीं है। 'सूर होतो' यहाँ पर शब्दकला और स्वर मधुरता इन दोनों के एक अनोखे, सुंदर मिलाप का अनुभव आता है।

'सांज घनाच्या मिटल्या ओळी'

यह भी एक बहुत ही कोमल भावनाओंको खोलकर दिखानेवाली सुंदर काव्यरचना है। कदमजी ने बंदिश भी यमन में ही बांधी है। इसकी क्रॉस लाईन के आखिर में 'क्षितिजावरती' यहाँ पर उन्होंने नि और कोमल ऋषभ का बहुत ही कुशलतापूर्ण उपयोग करके यमन की पुरी व्यक्तिरेखा बदल डाली है। इतना ही नहीं, उस ऋषभ की योजना के कारण 'क्षितिज' इस शब्द का अर्थ प्रतीत करने के लिए कोमल रिषभ को अन्य कोई पर्याय नहीं है यह तुरंत ही समझ में आता है। पुरीया रागका इसमें होनेवाला दर्शन और साथ ही अंतरे के बाद आनेवाली सुरावट यह सब बहुत अच्छे तरीके से मेलजोल खाती है। सुप्रसिद्ध कवी अनिल कांबलेजी के-

'जवळ येता तुझ्या दूर सरतेस तू
ऐनवेळी अशी काय करतेस तू'

सुनाई। लेकिन खासियत यह है कि उससे वही धून इस गीत की तर्जभी यमन में ही बांधी है। यमन की बहुत ही चुलबुली स्वररचना खेमटा के अंग से लगनेवाला दादरा का ठेका, लय थोड़ी उड़ती उड़ती और इसलिये उसे विशिष्ट अर्थ देनेवाली, इस गीत को बहुत सही न्याय देती है। सौंदर्य स्थलोंका निर्देश करने की इच्छा हो तो 'ऐनवेळी अशी काय' इस पंक्ती की अधीरता दर्शाने के लिये बहुत ही सुयोग्य ऐसी स्वर समूह रचना करना बिलकुल ठीक होगा। 'सामग, सामगधप आदी का आनंद अपने आप ही अनुभव करने योग्य है। 'तुझ्या नभाला गडे किनारे' यह भी यमन की एक श्रवणीय रचना है। यमन इस एकही राग की चारों रचनायें उन्होंने मुझे एक के बाद एक सुनाई।लेकिन खासियत यह है कि उसमे वही धुन 
बार बार नहीं दोहराई है। स्वर रचना एक जैसी बिलकुल भी नहीं है, उसमें एक अलगपन है, जो किसी भी श्रेष्ठ संगीत रचनाकार की विशेषता मानी जाती है। सुगम संगीत में आकर्षक मुखड़े को याने धृपद को विशेष महत्व है। कदम जी की स्वररचनाओं के मुखड़े बहुतही आकर्षक होते हैं। उससे भी ज्यादा कुशलता और महत्व होता है, वह मुखड़े के बाद आनेवाले क्रॉसको। क्यूंकि संगीत रचना की आकर्षकता का वह प्रमुख स्थान है। मुखड़े की धुन को अनुरूप या फिर उससे भी आगे जाकर उसका सौंदर्य बढानेवाली आरोही पुरी करके अवरोही और षड्ज पर विराम होनेवाली स्वररचना, यह काम बहुत कठीन होता है। अगर ऐसा नहीं होता तो पुरी धून फंस जाती है। कई संगीत रचनाओं में ये दोष दिखाई देते है। संगीतकार को अपनी पुरी बुद्धी यहाँ पर खर्च करनी पडती है। सुधाकर कदम जी की रचनायें इस कसौटी पर पुरी उतरती है और इसीलिए वे मन को मोह लेती है। अंतरे के बाद आनेवाली धुन पहली धुनके हाथ में हाथ डालकर आगे बढ़ती है। किसी अन्य राग को जाते जाते धीरेसे स्पर्श करना याने शहद की अंगुली चखने जैसा बड़ा ही मधुर होता है। अर्थ यही है कि अंतिम पंक्तियां पुरी तरह से हायलाईट का उजाला कर देती है। बिलकुल उसी तरह की स्वररचना भी कदम जी बड़े सामर्थ्य से कर दिखा देते हैं। यमन एक ही, लेकिन उसके रूप हजार, उसके रंग हजार और उसके ढंग भी हजारों और उसकी यह अनोखी अदाकारी जिसे हम मोहजाल या मायाजाल कह सकते हैं, जब हम पर डाला जाता है तब खुद माहीर रसिक होकर भी हम फंस जाते हैं। बाद में समझ आता है कि यह यमनने किया हुआ कपट था लेकिन फिर भी वह कपट बहुत ही मधुर था और मासूम भी था।

     यमन राग अभंग से लेकर लावणी तक के सभी प्रकारों में रंग जाता है या दुसरों को रंगाता है। मराठी भाषा में करीब करीब सभी संगीतकारोंने इसमें स्वररचना की हुई है। अगर उनकीं एक लिस्ट बनाई जाये तो फिर वह एक बडा लेख होगा। फिर भी कुछ रचनाओं का जिक्र किये बिना यह लेख पुरा नहीं होगा।

'घूंदी कळ्यांना...

'का रे दुरावा...'

'पराधीन आहे जगती....

'तोच चंद्रमा...'

'पिकल्या पानाचा देठ की ग हिरवा..."

'कबीराचे शेले विणतो...'

'सुखकर्ता दुखहर्ता... (आरती)'

'जिये सागरा धरणी मिळते...'

'जीवनात ही घडी...'

'शुक तारा...'

'तिन्ही सांजा सखे मिळाल्या...'

साथही कई नाट्यगीत भी इसमें शामील है। उसने अभिषेकी बुआ का मत्स्वगंधा नाटक के लिये रचा हुआ स्वरशिल्प 'देवाघरचे ज्ञात कुणाला...' हुये बहुत पसंद है। गाया है रामदास कामतजी ने। हिंदी चित्रपट सृष्टी में भी यमन ने धूम मचायी है। सैगल के 'मैं क्या जानू क्या जादू है..." से लेकर आज के 'तुम दिल की धड़कन हो... तक.... इसमें सुंदर सुंदर गीत है।

... 'मन रे तू काहे न धीर धरे.....

'जिया ले गयो...'.

'जा रे बदरा बैरी जा.....

'वो हँसके मिले हमको.....

'पान खाये सैयाँ.....

'इस मोडपर आते है.....

'चंदन सा बदन...'.

'आँसू भरी है.....

जब दीप जले आना....
ऐसे कितने गानोंकी बात करेंगे...?

उर्दू ग़ज़ल में 'रंजिश ही सही....' यह ग़ज़ल याने मिलोंका पत्थर है। साथ में 'वो मुझसे हुये..... 'शाम-ए-फ़िराक...' ये गजलें और 'आज जाने की ज़िद ना करो...' यह फ़रीदा खानम की गायी हुई रचना याने कमाल की उंचाई।
'मरीज़े मुहब्बत...', 'दिलवालों क्या देख रहे हो...' ये गुलाम अली की गजलें अपना अनोखा रंग दिखाती है।
'क्यूँ मुझे मौत के पैग़ाम दिए जाते है...' (शोभा गुर्टू), 'तुम आए हो तो शबे इंतज़ार गुजरी है...' (इकबाल बानो), 'आपका इंतज़ार कौन करे...' (शुमोना राय) ये गजलें भी बहुत श्रवणीय है। उर्दू गझल गायक मेहदी हसन साहबने गायी हुई अहमद फ़राज़ की 'रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ...' इस गजल ने लोकप्रियता के सारे झंडे उखाड दिए। (देखा जाये तो यह गीत (गझल) 1972 की 'मोहब्बत' इस पाकिस्तानी फिल्म का है और इसके संगीतकार निसार बज्मी हैं। लेकिन खां साहब ने महफिल में गाकर इस रचना का सोना किया) इस गजल के साथ साथ यमन राग की लोकप्रियता (गजल गायन के संदर्भ में) आसमां को छू गई। पहले से ही मधुर होनेवाले इस राग में फराज साहब के शब्द, खौँ साहब की भरीपुरी मिठी आवाज और उन शब्दोंको जचनेवाली, बिनती करनेवाली बंदिश इस प्रकार का बहुतही उंचे दर्जे का संगम इसमें दिखाई देता है।

     ऐसी ही बिनती मैंने स्वरबद्ध की हुई तुझ्यासाठीच भी इस अलबम के 'तुझ्यासाठीच मी....... इस गजल में आपको दिखाई देगी। (अर्थात सच्चे परीक्षक आपही हैं) ऐसा यह यमन.... तो फिर सुनिए... केवल मध्य और मंद्र सप्तक की यह बंदिश, वैशाली माडे की आवाज में..

तुझ्यासाठीच मी माझे तराणे छेडले होते
तुझ्यासाठीच स्वप्नांचे दिवे मी लावले होते

-सुधाकर कदम

हिंदी अनुवादः डॉ. आरती मोने


 

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