गझल

माझी मराठी गझल गायकी

मराठी गझल गायकीला तशी कोणतीही परंपरा नाही.माझ्या अगोदर मराठी गझल,गझलसारखी गाण्याचा फ़ारसा प्रयत्न कोणीच केला नसल्यामुळे मराठी गझल गाणे हे माझ्यासाठी आव्हान होते.मराठीमध्ये गझल जशी उर्दूकडून आली तशीच मराठी गझल गायकीही उर्दू गझल गायकांकडून उचलावी लागली.माझी गायकी किंवा ढंग हा पाकिस्तानचे मेहदी हसन,फ़रिदा खानम,गुलाम अली व आपले जगजीत सिंग ह्यांच्या गायकीवरुन तयार झाला आहे.त्या काळात विदर्भातील यवतमाळ जिल्ह्यातील आर्णी सारख्या आडवळणी गावात वरील गायकांच्या ध्वनिमुद्रिका सुध्दा मिळत नव्हत्या.पाकिस्तान रेडिओवरुन जे काही ऐकायला मिळायचे त्यावरुन मला जेवढे शिकता येईल तेवढे शिकत गेलो.पुढे स्व.सुरेश भटांनी मला मेहदी हसन,फ़रीदा खानम, यांच्या ध्वनिफ़िती दिल्या.हळूहळू गुलाम अली,जगजीत सिंग,बेगम अख्तर यांच्याही गायकीचा अभ्यास करुन मी माझा वेगळा असा बाज निर्माण केला. (पृष्ठ क्रमांक क्लिक केल्यास एक- एक पृष्ठ आपल्याला वाचता येईल)

पृष्ठ क्र.



Sunday, December 6, 2020

मराठी ग़ज़लें भी उर्दू की तरह मधुर होती है...प्रभाकर पुरंदरे.


            साहित्य, कला तथा संगीत किसी जाति, भाषा या देश तक सीमित नही रहते बल्कि उनका प्रभाव मानवी रुचि के अनुरुप व्यापक होता है़ आजकल संगीत के क्षेत्र में ग़ज़ल गाने और सुनने का काफी प्रचलन है । प्रायः ग़ज़ल को लोग उर्दू संस्कृति की देन समझते है । गुलाम अली, मेहदी हसन, जगजीत-चित्रासिंह आदि की हिंदी-उर्दू ग़ज़ले तो वर्षों पहले ही संगीत शौकीनों के दिलों मे घर कर चुकी है । हिंदी-उर्दू के अलावा पंजाबी और गुजराती मे भी ग़ज़लें बरसों से गाई जा रही है । मराठी गायन क्षेत्र मे भी ग़ज़ल तेजी से अपना प्रभाव जमा रही है । मराठी मे ग़ज़ल सबसे पहले माधव पटवर्धन द्वारा लिखी गई थी, परंतु विद्वानों ने उसे ग़ज़ल न मानकर भावगीत की संज्ञा दी । सुप्रसिध्द ग़ज़ल गायक एवं लेखक सुरेश भट ने मराठी ग़ज़लों को लोकप्रिय बनाने में विशेष भूमिका निभाई । उनके बाद अनिल कांबले, श्रीकृष्ण राऊत, उ़. रा़. गिरी, प्रदीप निफाडकर आदि ग़ज़ल लेखकों के नाम आते है । फिलहाल मंगेश पाडगावकर श्रेष्ठ ग़ज़ल रचयिता माने जाते है ।
 पिछले दिनो शहर के जाल सभागृह मे इन श्रेष्ठ रचनाकारों की ग़ज़लें सुनने का अवसर मिला । गायक थे - सुधाकर कदम । सोलह दिसंबर की शाम लगभग चार घंटे तक चले मराठी ग़ज़ल महफिल कार्यक्रम में कदम ने कई ग़ज़लों को अपने मधुर स्वरों में गाकर उपस्थित संगीत रसिकों को आनंदित किया । ‘कुठलेच फूल आता मजला पसंत नाही़’, ‘सूर्य केव्हाच अंधारला यार हो़’, ‘झिंगतो मी कळेना कशाला़’ ‘लोपला चंद्रमा, लाजली पौर्णिमा़,तथा ‘नको स्पर्श चोरू नको अंग चोरू.’ आदि गजलों को श्रोताओ ने खूब पसंद किया ।
 गायक सुधाकर कदम के पिता महाराष्ट्र के वारकरी संप्रदाय के संगीत से संबद्ध रहे है । सो पिता से शास्त्रीय संगीत की उन्हें प्रेरणा मिलना स्वाभाविक है । ग़ज़ल गायकी के क्षेत्र मे आने के पूर्व सुधाकरजी भाग्योदय आर्केस्ट्रा नामक संगीत मंडली को चलाते थे । 'भरारी' नामक उनके ग़ज़लों की कैसेट काफी लोकप्रिय हुई है । हाथरस से प्रकाशित होने वाले संगीत मासिक संगीत के वे स्तंभकार है । इस पत्रिका के ‘नग़्म ए-़ग़ज़ल’ कॉलम के अंतर्गत वे ग़ज़लों की स्वरलिपि लिखते है । ग़ुलाम अली एवं मेहदी हसन जैसे वरिष्ठ गजल गायकों से गजलों से संस्कार आत्मसात करने वाले सुधाकर कदम ने बच्चों के लिए भी कई मधुर कविताओ को भी स्वयं संगीतबद्ध किया है । वे अपनी गाई ग़ज़लों को भी स्वयं ही संगीतबध्द करते है । बच्चों के लिए उन्होने झूला सीरिज के अंतर्गत तीन भागों में कविताओं को संगीतबद्ध कर कैसेट का रूप दिया है ।
 सुधाकरजी से बातचीत के दौरान बताया कि, उन्होंने वर्‍हाडी कवि शंकर बडे की ग़ज़ल को गाया था। ग़ज़ल का पहला कार्यक्रम पुणे के गडकरी हाल में हुआ था । यह कार्यक्रम काफी स्मरणीय था, क्योंकि इसकी अध्यक्षता गजल रचयिता सुरेश भट ने ही की थी । कदम बताते है कि इस कार्यक्रम में संगीत प्रेमियों की उपस्थिति से हाल खचाखच भर गया था । लोगों ने इस कार्यक्रम को खूब पसंद किया ।
 मराठी ग़ज़लों मे कई बार उर्दू भाषा के क्लिष्ट शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है, इससे श्रोताओ को समझने में कठिनाई तो महसूस होती होगी? इस सवाल के जवाब मे कदम बताते है कि भाषा संबंधी कठिनाइया तो सभी प्रकार की ग़ज़लों में है । लेकिन जहां तक शुध्द मराठी ग़ज़लों का सवाल है कुछ मराठी ग़ज़ल रचनाकारों ने अत्यंत सरल एवं प्रभावी शब्दों का प्रयोग किया है । सुरेश भट, श्रीकृष्ण राऊत तथा ज्ञानेश वाकुडकर आदि इसके श्रेष्ठ उदाहरण है -
 
 ‘लोपला चंद्रमा लाजली पौर्णिमा,
 चांदण्यांनी तुझा चेहरा पाहिला.’ (श्रीकृष्ण राऊत)
 
 ‘नको स्पर्श चोरु, नको अंग चोरू
 सखे पाकळ्यांचे नको रंग चोरू.’(ज्ञानेश वाकुडकर)
 
 तथा
 
 ‘कुठलेच फुल आता मजला पसंत नाही
 कळते मला रे हा माझा वसंत नाही.’ (सुरेश भट)

आदि प्रसिद्ध ग़ज़लों में सरल और प्रभावी मराठी शब्दों का प्रयोग हुआ है ।
 महाराष्ट्र और उसके बाहर लगभग ढाई सौ से ज्यादा ग़ज़ल कार्यक्रम सफलतापूर्वक आयोजित करने वाले सुधाकर कदम का मानना है कि मराठी ग़ज़लों का भविष्य काफी उज्ज्वल है । लोग शहरों में नहीं, बल्कि गांवो में भी इसे पसंद कर रहे है । उन्होने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि जितनी ग़ज़ले आजकल मराठी मे लिखी जा रही है उतने गायक तैयार नहीं हो पा रहे है । उन्होने मराठी ग़ज़ल गायन के बारे में बेहिचक बताया कि इसमें उर्दू ग़ज़लों की तरह नजाकत होती है ।
 कदम, मराठी के अलावा हिंदी ग़ज़लें भी गाते है । इंदौर के अपने २५० वे कार्यक्रम में उन्होंने कुछ हिंदी ग़ज़लें गाई थी । उन्होंने यह स्वीकार किया कि मराठी श्रोता उर्दू श्रोताओं की तरह दाद नहीं देते । ऐसा विशेष रुप से महाराष्ट्र से बाहर के कार्यक्रमों के जरिए प्रयत्न कर रहे है । महाराष्ट्र मे पुणे, कोल्हापुर, नांदेड, सांगली, अमरावती, औरंगाबाद, जलगांव आदि जगह उनके कार्यक्रम को संगीतप्रेमियों का खूब समर्थन मिला है । सुधाकर कदम की ग़ज़ल गायकी कई विशिष्टताओं से परिपूर्ण है । उन्होंने ग़ज़लों को शास्त्रीय पध्दति में ढालने का प्रयास किया है । यही कारण है कि उनके द्वारा गाई ग़ज़लें सामायिक नहीं वरन सदाबहार बन गई है । जिस तरह उर्दू ग़ज़लों में गायन के पूर्व गायक कुछ एक शेर पेश करते है । ठीक उसी तरह सुधाकर जी भी मराठी ग़ज़ल शुरु करने के पूर्व रुबाई का सफल प्रयोग करते है । महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के पच्चीस-तीस हजार आबादी वाले आर्णी नामक कस्बे में रहने वाले सुधाकर कदम एक अच्छे सरोद वादक भी है ।
 सोनम मार्केटिंग एंड कम्यूनिकेशन द्वारा आयोजित तथा डी़ एड़ एच़ सेचरॉन द्वारा प्रायोजित इस अनोखी गजल निशा के दूसरे आकर्षण थे कलीम खान ।संपूर्ण कार्यक्रम का संचालन अपनी मधुर आवाज और विशिष्ट अंदाज में कर कलीम खान ने उपस्थित मराठी भाषियों का दिल जीत लिया । वे एक अच्छे कवि एवं गजल रचयिता भी है । कलीम खान ने ‘कुंकू’ शीर्षक वाली अपनी अत्यंत संवेदनशील कविता सुनाकर श्रोताओं को हतप्रभ कर दिया । तबले की संगत रमेश उइके (नागपुर) ने की जबकि सारंगी वादन मोइनुद्दीन (इंदौर) ने किया ।

दैनिक चौथा संसार,इंदौर,दि.२७/११/१९८९





 





संगीत आणि साहित्य :